कैमरे की चकाचौंध 100 से अधिक सांसद एनडीए शासित मुख्यमंत्रियों की मौजूदगी प्रधानमंत्री मोदी और बीजेपी अध्यक्ष की उपस्थिति में रामनाथ कोविंद ने देश के 14 वें राष्ट्रपति पद के लिए नामांकन भर दिया . कैमरे के हर फ्रेम में कोविंद थे पर फ्रेम में होकर भी जो नही थे वे आडवाणी थे . संख्याबल से कोविंद देश के 14 वें राष्रपति तो बन जाएँगें लेकिन जब भी इतिहास में राष्रपति कोविंद का जिक्र आएगा आडवाणी ज़रूर याद आएँगें . कोविंद की क़ाबिलियत में कमी नही लेकिन बीजेपी संगठन और राष्ट्र के लिए आडवाणी का संघर्ष उनके कद और पद से बडा है . आडवाणी कोविंद की परछाईं बन जाएँगें शायद इतिहास आडवाणी को तब ज्यादा याद करे जब कोविंद प्रतिभा पाटिल की तरह देश के मनोमस्तिष्क से पाँच साल बाद शुक्रवार को हटने वाली फ़िल्मों की तरह हट जाएंगें लेकिन आडवाणी हमेशा रहेंगें क्योंकि आडवाणी अब व्यक्ति नही मन की अवस्था बन चुके है .
महान बनने और बनाने के शोर में आडवाणी के एकांत में अपना भी एकांत है . आडवाणी व्यक्ति नही हर किसी की अवस्था है ऊपर जानेवाले को सब पूछते है पीछे रह जाने वालों पर सहानूभूति जाते है .आडवाणी तन्हाई का नाम है . आडवाणी जीवन की नियति है . सब आडवाणी होने से डरते है इसलिए साम दाम दंड भेद गिरकर गिराकर रिश्वत से चाटुकारिता से गंगा नहाकर आडवाणी नहीं होना चाहते .
जिस पार्टी में आडवाणी के राजनैतिक जीवन के संघर्ष संयम और शुचिता की मिसालें दी जाती थी जीवन के अंतिम सालों में वो आडवाणी मिसाल देने लायक भी नही रहे . भारतीय राजनीति की यह पटकथा सालो साल याद रखी जाएगी लेकिन कोई आडवाणी नही होना चाहेगा . आडवाणी के होने में आह है छटपटाहट है चीख़ है कन्द्रन है निर्ममता है .
किसे याद नही रहेगा दिल्ली का 30 पृथ्वीराज राज रोड . दिल्ली में सत्ता का सबसे महत्वपूर्ण प्रतिष्ठान जो आडवाणी के होने से गुलज़ार होता था .घर के बाहर लगी गाड़ियों केी लंबी क़तारें बताती थी शहर में आडवाणी है या नहीं .बीजेपी के मुख्यमंत्रियों की फ़्लैश चमकाती गाड़ियाँ ,पार्टी अध्यक्षों की लाइनें ,टिकट चाहने वालों की भीड पत्रकारों चाटुकारों की लंबी पंक्तियां जो आडवाणी से मिल लिया तर लिया समझ लिया काम हो गया . आडवाणी बीजेपी की धड़कन थे .घटनाएँ आडवाणी के आने पर घटित होती थी और बीजेपी का इतिहास आडवाणी से पूछकर तारीखें दर्ज करता था . हर बडे फैसले पर वाजपेयी भी प्रमोद से पूछते थे आडवाणी से पूछा क्या ? शहर की हर धड़कन में आडवाणी थे .
आडवाणी का सारथी बनने के लिए बीजेपी के अर्जुनो में मारामारी होती थी .आडवाणी संघ के सबसे बडे स्वयंसेवक थे लेकिन यह आडवाणी का जलवा ही था कि आरएसएस सुप्रीमो को भी आडवाणी से मिलने पृथ्वीराज रोड ही आना पड़ता था .आडवाणी बीजेपी थे बीजेपी आडवाणी .90 के दशक की बीजेपी आडवाणी की थी जो थे या हैं आडवाणी की खोज थे या उन्हें आडवाणी ने बनाया था बचाया था . क्या मोदी क्या जेटली क्या सुषमा वैंकैंय्या ,अनंत ,शिवराज लेकिन कोविंद के चुने जाने के समय सब मौन बैठे थे चुप थे संतुष्ट थे आत्ममुग्ध थे . आडवाणी उन्हें कचोट नहीं रहे थे या शायद सबने मान लिया था आडवाणी की अब यही नियति है इस उम्र में सबको आडवाणी होना होता है . भावुक आडवाणी शायद इससे भी संतुष्ट हो जाते और मान लेते कि भाग्य में रायसिना हिल जाना लिखा नही था अगर उनमें से कोई चीख़ता ,चिल्लाता नही तो संयम के साथ आडवाणी के कर्म का मर्म ही समझा देता पर तरस मत खाइये समय इतना बेरहम हो चुका है हम सबको आडवाणी होना है आज नही तो कल .
आडवाणी सिर्फ एक चुप्पी तन्हाई बेबसी का नाम नही आडवाणी एक ज़िद का नाम भी है आडवाणी होने के लिए राजनीति का संयम ,संयम की मर्यादा भी होनी चाहिये . आडवाणी के 70 साल के राजनैतिक करियर में अगर दाग लगा भी तो राष्ट्रवादी विचारधारा पर चलने का राममंदिर आंदोलन में साज़िश का , हवाला में आरोप लगा तो इस्तीफा दे दिया न खुद संपत्ति अर्जित की न परिवार को करने दिया . जरा सोचिये जिस दौर में आडवाणी की एक इनायत के लिए टाटा बिरला अंबानी घंटों दीपक चोपड़ा के फोन का इंतज़ार करते थे अगर आडवाणी लालू होते और प्रतिभा आडवाणी मिसा भारती तो कितनी बेनामी संपत्तियाँ के मालिक होते ? पर यह आडवाणी का संयम था इतनी लंबी पारी में न खुद पर दाग लगने दिया न परिवार पर .
आडवाणी की जरा बेबसी देखिये चाहते तो वाजपेयी को अपदस्थ कर वघेला बन सकते थे . कल्याण सिह बन सकते थे या पार्टी तोड़कर शरद पवार बन सकते थे लेकिन ऐसा करने से पहले खुद रूक जाते होगें कोई जड़ अपनी टहनियों को खुद कभी काटता है क्या ? कभी सोचता हूँ आडवाणी प्रतिभा के साथ ढलते सूरज के साथ पेड़ों के झुरमुट के बीच टहलते समय या संसद के अपने कमरे में अकेले बैठकर क्या सोचते होगें ? क्या खुद से बातें करते होगें या दीवारों पर लगे पुराने फोटो में फ्रेम हो जाते होगें . कितनी दोपहर संसद के अपने कमरे में आडवाणी को अकेले बैठे देखा है कुछ उलटते पलटते हुए इतिहास को खींचते हुए वर्तमान को निचोडते हुए .
कई बार सोचता हूँ क्या आडवाणी उस मुँडेर पर बैठे थे जहाँ से पीछे लौट आना संभव नही होता ? क्या आडवाणी समझौता नही कर सकते थे ? या समझौता करने पर आडवाणी आडवाणी नही रहते कुछ और हो जाते ? या आडवाणी की हड्डियाँ इतनी कमज़ोर पड चुकी थी कि वे प्रतिरोध नही कर सके ?क्या आडवाणी को अपने जीवन का मलाल होता होगा ?या आडवाणी को अपने राजनैतिक जीवन पर गर्व होता होगा ? जिस संगठन की ईंटें जोड़कर पोस्टर दीवारों पर चिपकाकर सत्ता तक पहुँचाया अगर वहीं अस्पृश्य हो जाएं तो फिर जीवन का मूल्य क्या ?
आडवाणी वाजपेयी की तरह करिश्माई नही थे लेकिन अदभूत के संगठनकर्ता . कार्यकर्ताओं की हर बैठक में दीनदयाल उपाध्याय श्यामाप्रसाद मुखर्जी के संघर्षों को याद कराना भूलते नही थे . इतिहास स्मरण करना उनकी कमज़ोरी थी . आडवाणी ने अपनी आत्मकथा माई कंट्री माई लाईफ़ में लिखा हैउनके राजनैतिक जीवन को दो घटनाओं ने बदल डाला पहला सोमनाथ से अयोध्या की यात्रा और दूसरा पाकिस्तान की यात्रा . लेकिन दोनो घटनाओं के समय वे पाकिस्तान में थे . अब वे बीजेपी के पाकिस्तान है अगर आडवाणी भविष्य पढ़ पाते तो शायद वर्तमान सुधार लेते जहाँ तीसरी घटना उनके इतिहास बनने का इंतज़ार कर रही थी . कभी मोदी के आदर्श आडवाणी थे और आडवाणी के सरदार पटेल जिनका भव्य मेमोरियल बनाना मोदी का सपना था और आडवाणी का बनना सियासत की मजबूरी .
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